स्नेह-सागर के निर्मल धारे, जीवन में जो तुमने बाँटे।
धूप चुभी जब पथ में मेरे, छाया बनकर संग थे आते॥
कभी हँसी तो कभी दुलारे, गोद बिठाकर खेल खिलाया।
नयनों में थे स्वप्न सुनहरे, हर आहट पर पास बुलाया॥
संस्कारों की जोत जलाकर, राह दिखाई उज्ज्वल गगन की।
शब्द सिखाए, नीति बताई, पग धरवाए शिखर-सरण की॥
कण-कण में जो स्नेह समर्पित, दिन-रैन किया अर्पण अपना।
स्वप्न हमारे पूर्ण बनाने, हर पीड़ा का किया निगलना॥
जब-जब आया संशय मन में, तुमने विश्वास दिया मुझको।
गिरा अगर तो हाथ पकड़कर, फिर से आकाश दिया मुझको॥
अपनी इच्छाएँ त्याग हमारे सुख का तुम आधार बने थे।
जीवनभर संकल्प हमारे मील के तुम्हारे पत्थर बने थे॥
किन्तु समय की चंचल रेखा, सब कुछ मुझसे छीन गई जब।
पीछे देखा, साया छूटा, पीड़ा बनकर भीग गई जब॥
अब न कोई सिर पर छाया, अब न कोई शब्द सहारा।
हृदय अकेला, अश्रु अनाथ, किससे अब माँगूँ दुबारा?॥
शब्द नहीं हैं, भाव नहीं हैं, केवल नयनों में जल है।
किन्तु तुम्हारी स्मृतियाँ माँ-पिता, मेरा जीवन संबल है॥
नमन तुम्हारे चरणों में यह, हर श्वास तुम्हारे नाम रहे।
युग बीते, फिर जन्म मिले तो, माता-पिता का धाम रहे॥
अटूट स्नेह
Published inKavita (Poems)
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