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“रात के इस सन्नाटे में, कोई आवाज़ नहीं आती”

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रात के इस सन्नाटे में, कोई आवाज़ नहीं आती, बस यादों की चादर है, जो हर सांस में लिपटी जाती। छत की दरारों से झरती है पुरानी धूप, पर अब उस उजाले में भी, एक धुंध सी छाई जाती।

कभी हवा में हल्की सी गंध, पुराने अचारों की, कभी किसी गली में झंकार, उन ही कदमों की। मन सोचता है, शायद आज लौट आओगे, पर पत्तों की सरसराहट कहती है — अब सिर्फ़ यादों की बारी है।

कभी सपनों में मिलते हो, जैसे नींद को राहत मिल गई, पर जागते ही वो परछाई, फिर धुएँ में बदल गई। दिल कहता है — शायद अब यही प्रेम का रूप होगा, जहाँ दर्द भी दुलार लगे, और खोना भी अपनापन लगेगा।

अब आँखें नहीं रोतीं, बस भीतर एक सागर रहता है, हर लहर में तुम्हारी कहानी कहता है। कभी किनारे पे आता हूँ तो लगता है — कोई लहर यहॉं नही आती,रात के इस सन्नाटे में, कोई आवाज़ नहीं आती

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Published inKavita (Poems)

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