Skip to content

विचारों की लहरें: आत्म-चिंतन, सत्य की खोज, और आत्म-विकास (Waves of Thoughts: Self-Reflection, the Search for Truth, and Self-Improvement, The Power of Thoughts and the Reflection of Society)

Last updated on July 8, 2024

Share

सोच रहा हूँ अब सो ही जाऊं !!

जागता हूँ तो कुछ ना कुछ देखता हूँ, कुछ ना कुछ सुनता हूँ। अब जब देखता सुनता हूँ तो कुछ न कुछ सोचता हूँ। इतना करने में कोई दिक्कत नहीं है सारी दिक्कत शुरू होती है जब ये सोच मेरे मुख द्वार से बाहर आ जाती है। गलती विचारों की नहीं होती विचार तो पटाखों की उस लड़ी की तरह होते है जिसके एक सिरे पे चिंगारी लगा दो तो असंख्य छोटे बड़े विस्फोट करती हुई कहाँ की कहाँ पहुंच जाती है। पटाखों की ऊर्जा ध्वनि और प्रकाश के रूप में फैलती है। मगर विचारों की लड़ी की ऊर्जा शब्दों और कर्म के माध्यम से बहार आती है जिसकी वजह से कभी लोग मारते हैं तो कभी मैं खुद ही आत्मग्लानि से मर जाता हूँ, इसी लिए सोच रहा हूँ अब सो ही जाऊं।

वैसे तो मैं जानता हूँ आप पूछेंगे नहीं , की भाई क्या हुआ? क्यों ऐसी बातें कर रहे हो? वग़ैरा वग़ैरा… और आप पूछे भी क्यों… भाई आप का भी तो घर बार है बीवी बच्चे हैं जिनके भविष्य की चिंता आपको पहले से ही खाये जा रही है। मेरी बातें सुनके कहाँ आप अपने दिमाग और ख़राब करोगे, और चलो मान भी लो आपने ऐसी कोई गलती कर भी दी तो कौन सा मैं आप को सच बता दूँगा। माँ कहती है दर्द उसे बताना चाइये जो आपका दर्द समझे ना की उसे जो आपका दर्द आधा सुने और अपने पहले के सर दर्द के साथ गुना भाग करके आप को मन ही मन गालियाँ देना शुरू कर दे, इसलिए सोच रहा हूँ अब सो ही जाऊँ।

लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जो लाख कोशिश करने पर भी सोने नहीं देतीं। आज बात कुछ ऐसी ही है, शायद कुछ ज़्यादा गंभीर, लेकिन किस के लिए? प्रत्यक्ष रूप से उसके लिए उसके लिए जो इन बातों को सोचता है समझता है। जो लोग अपनी दिनचर्या से बाहर कुछ देख समझ नहीं पाते उनके पास किसी और का कष्ट देखने समझने की कहाँ फ़ुरसत, और जो थोड़ा बहुत वक़्त निकाल भी लेते हैं वो विश्राम और मनोविनोद मे लगा देते हैं। आखिर कितना कठिन है उनका जीवन और उस से जुड़ी रोज़मर्रा की परेशानियाँ। अब इस मे उन बिचारे इंसानों की क्या गलती, वो तो वही कर रहें जो समाज ने उन्हें सिखाया है। बचपन से ही उन्हें सिर्फ अपने बारे मैं सोचने पे मजबूर करने वाले हम लोग उनके बड़े होने पर कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वो अपने अलावा किसी और के बारे मे सोच भी लें। और तो और हम उनके ऐसा करने पर जो हमने ही उन्हें बचपन से सिखाया है उन्हें स्वार्थी और मतलबी की उपमा देने से बिलकुल नहीं झिझकते। देखा जाए तो बुराई अपने बारे में सोचने में नहीं है बल्कि हर इंसान को अपने बारे मैं ज़रूर सोचना चाहिये हाँ लेकिन सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में सोचने में कहीं न कहीं कुछ न कुछ दोष ज़रूर है। अपने और सिर्फ अपने बीच की बारीक़ सी रेखा का ज्ञान ना हमे किसी ने दिया ना हम किसी को दे पाए और जब गलती अपनी ही हो तो असंतोष प्रकट करने से भी कुछ प्राप्त नहीं होता, इसी लिए सोच रहा हूँ अब सो ही जाऊं।

ये विचार मन मे आते ही फिर माँ की कही एक बात दिमाग में आ जाती है जो रोंगटे खड़े कर देती है, माँ कहती थी की गलती तो सब से होती है लेकिन इंसान वो है जो अपनी गलती सुधार ले। और ये तो हम कभी कर ही नहीं सके, तो क्या हम इंसान कहलाने के अधिकारी हैं? अगर हम समझते हैं की हम इंसान हैं तो ये किस प्रकार का इंसान है जो किसी का दुःख दर्द देख कर भी उसकी अवहेलना करता है। सहानुभुति संवेदना और दया जैसे भाव हमारे लिए सिर्फ शब्द बन कर रह गए हैं, या फिर शायद शब्द भी नहीं रहे। वैसे गलती तो तब सुधरेगी जब हम मानेंगे की हम से गलती हुई है और ये गुण तो हम में है ही नहीं। गलती मानना तो हमारे लिए किसी विश्व युद्ध को अकेले जीतने के बराबर है। इसी लिए तो हम गलती कर के उसे अनदेखा करना या दबाना या उसके लिए किसी और को दोषी ठहराना अधिक आसान समझते हैं और ऐसा कर के गौरवान्वित भी महसूस करते हैं। अब गौरवान्वित होने का वास्तविक अर्थ किसे और कौन समझाए, इसीलिए विवश होकर सोच रहा हूँ अब सो ही जाऊं।

एक दिन सोचा कि गलती मान कर ही देखते हैं, एकांत में ही सही समाज कि बुराइयों के लिए खुद को दोषी मान कर देखते हैं, आखिर हम से ही समाज है और समाज से हम। तो लो हमने मान लिया खुद को दोषी, लगादी अद्भुत और नए विचारों की लड़ी में चिंगारी और सब से पहले जो पटाखा फूटा उसने “अपना“ इस शब्द का अर्थ जो हमने अपने संपूर्ण जीवन में सामाजिक अनुभवों से सीखा था उसे उलट पुलट कर रख दिया। एक ओर आत्मग्लानि और पश्यातापथी दूसरी ओर आत्मशांति और संतोष के भाव हमे समेटते जा रहे थे। वो सीमाएं जो हमे रोक रही थी ज्ञात हो रहा था की वो कभी थी ही नहीं, सिर्फ हमारी कल्पना थी वास्तविकता असीम है अपार है। दरअसल कोई बंधन था ही नहीं जो हमे “अपना” और “सिर्फ अपना” के बीच का अंतर समझने से रोक रहा था। इस बारीक़ रेखा का ज्ञान ही अप्रतिम संतोष प्रदान करता है साथ ही एक उत्तरदायितव्य का एहसास कराता है जो अपने जैसे सोए हुए लोगों को जगाने की प्रेरणा और अभीष्ट साहस प्रदान करता है। इसलिए अब सोच रहा हूँ बहुत सो लिया अब जगूंगा और जगाउंगा।

Published inEssays & Articles

Be First to Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *