Last updated on July 8, 2024
।।बरगद की छाओं।।
एक पुराने गाँव में, ऊचें बरगद की छाओं में,
रोज़ धूप छना करती है, चिड़िया वहीं रहा करती है।
जब भी पारा चढ़ जाता है, मास्टर वहीं पढ़ाता है,
कोई राही थक आता है, वो वहीं बसेरा पाता है।।१
जब जब बादल घिर आते हैं, झूले वहीं लग जाते हैं,
चौपाल जमा सब गातें हैं, पुरखों की रीत सुनाते हैं।
पास नदी बहा करती है, जो भोले ने शीश सजा रखी है,
नित्य उसी में नहाते हैं, बरगद की छाओं में सो जाते हैं।।२
बचपन तो उसमें जीता है, यौवन भी वहीं रस पीता है,
उम्र वहीं ढल जाती है, याद पुरानी वो दिलाती है।
कोई आता है कोई जाता है, ये सब को संग बिठाता है,
कोई रोता है कोई गाता है, ये जीने का ढंग सिखाता है।।३
एक रोज़ विकास दिखाने को, राह नई बनाने को,
दूर शहर से अफसर आया, साथ सरकारी संदेसा लाया।
बोला यहाँ सड़क नई बनाएंगे, नज़दीकियां हम बढ़ाएंगे,
फासले अब घट जाएंगे, सब जल्दी जल्दी मिल पाएंगे।।४
रोज़गार भरपूर मिलेगा, हर कोई घर सोना तोलेगा,
बात सीधी साफ बताऊंगा, तुम से कुछ ना छुपाउंगा।
इनमें सूक्ष्म एक बाधा है, पर उपाय भी सीधा साधा है,
रास्ता यहीं से जाएगा, बस ये पेड़ ज़रा हट जाएगा।।५
पंच क्रोध में उबल गए, अफसर से कुछ ये बोल गए,
छाओं में इसकी तू खेला है, गाँव से इसी तू निकला है।
बचपन तेरा यहीं कहीं, यौवन भी देख वहीं कहीं,
झूला इसपे तू झूल गया, ये सब कैसे तू भूल गया।।६
वो वहीं छाओं में बैठ गया, वचनों पे कुछ यूँ ऐठ गया,
हुकुम तो मैं बजाऊँगा, फरमान सरकारी लाऊँगा।
ज़िम्मेदारी मैं निभाऊँगा, तरक्की नई कमाऊंगा,
तुम सब से मैं लड़ जाऊंगा, पर रास्ता यहीं बनाऊँगा।।७
जीवन आगे ले जाऊंगा, शहरों से राह मिलाऊँगा,
कुल्हाड़ा मैं चलाऊंगा, ये पेड़ तो मैं हटाऊंगा।
अभी आरा चल जाए गा, कोई रोक ना मुझ को पाए गा,
सवेरा नया फिर आए गा, जब ये रास्ता बन जाए गा।।८
चला कुल्हाड गिर गई काया, ना धूप छनि ना रही छाया,
चिड़िया ना अब दिखा करती है, मोटर बस चला करती है।
जब पारा चढ़ जाता है, मास्टर दूर रुक जाता है,
कोई थका ना आता है, बसेरा कहाँ अब कोई पता है।।९
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