ये क़लम किसके ख़्वाब देखती है — किसे पता,
शायद किसी टूटे दिल की अधूरी दास्ताँ,
या किसी मासूम की आँखों में पलती हुई उम्मीदें।
कभी ये इंक़लाब लिखती है, कभी इश्क़ के नग़मे,
कभी ये खामोशियों में छुपे सवालों को आवाज़ देती है,
तो कभी असहज और अप्रिय सच का आइना बन जाती है।
मेज़ पर चुपचाप पड़ी रहती है,
जैसे कुछ कहना चाहती हो,
पर किसी उंगलियों की तपिश का इंतज़ार करती है,
जो उसके भीतर के तूफ़ानों को काग़ज़ पर उतार दे।
ना जाने कितने राज़ समेटे हैं इसने,
कितनी बार खुद को तोड़ा है — चुपचाप, बिना शिकायत,
पर हर बार नया अफ़साना बनकर लौटी है,
स्याही में भीगी, विचारों में डूबी, एक लौ-सी जलती है।
ये क़लम किसके ख़्वाब देखती है — कौन जाने…
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ये क़लम किसके ख़्वाब देखती है
Published inKavita (Poems)
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