रामायण केवल एक ऐतिहासिक आख्यान नहीं, बल्कि मानव जीवन की गहन भावनाओं, कर्तव्य और धर्म की अनुपम गाथा है। यह कविता उसी करुण प्रसंग से प्रेरित है, जब माता सीता का रावण द्वारा हरण हो चुका है। राम पंचवटी में असहाय बैठे हैं, और अपने को ही इस पीड़ा का कारण मानकर आत्मग्लानि में डूबे हैं।
कविता में राम का मनोभाव चित्रित है—
कि यदि वे अयोध्या के महलों में होते तो सीता को कभी वनवास और कठिनाइयों का सामना न करना पड़ता। उनकी अंतरात्मा उन्हें दोषी ठहराती है, और वे व्याकुल होकर सीता से क्षमा माँगते हैं।
इसी शोक के प्रत्युत्तर में सीता का उत्तर उतना ही गहन और दार्शनिक है। वह राम को आश्वस्त करती हैं कि यह सब पूर्वनियत था। यदि रावण का छल और उनका वनवास न होता तो रावण का अंत भी संभव न होता। वह राम को समझाती हैं कि उनकी व्यथा ही आगे चलकर विजय का मार्ग बनेगी, और यह सब विधि का विधान है।
यह संवाद हमें यह सिखाता है कि जीवन में आने वाले दुःख केवल व्यक्तिगत त्रुटियों के कारण नहीं होते, बल्कि वे अक्सर किसी बड़े नियति-चक्र का हिस्सा होते हैं। राम का आत्मग्लानि और सीता का धैर्य — दोनों मिलकर इस प्रसंग को एक करुण, किन्तु दार्शनिक ऊँचाई पर ले जाते हैं।
राम (गहन शोक में):
महलों की छाँव छिनी तुमसे, वन का काँटा पाया,
मुझसे ही तुम्हें तपस्या का कटु उपहार दिलाया।
राजपथ का सुख छोड़ मिला धूल भरा यह पथ,
मेरे कारण तुमने सहे, दुःख, वियोग और व्यथ।
आज रावण ले गया तुमको, दोषी मैं ही ठहरा,
सीते! क्षमा करो प्रिय, यह जीवन मेरा तो बंजर ठहरा।
तेरे आँसुओं की धार से, मन मेरा जल जाता,
तेरी पीड़ा सोच-सोचकर, रोम रोम कट जाता।
सीता (मृदुल स्वर में):
रघुनन्दन! क्यों दुःख करते, क्यों दोषी मन मानो?
भाग्य लिखे जिस पथ पर चलें, उस पर ही बढ़ जाओ।
यदि यह वनवास न होता, यदि रावण न छल पाता,
तो उसका अंत सदा-सदा को कौन कहाँ लिख पाता?
तुम्हारी व्यथा ही विजय बनेगी, मत कर दोष विचार,
रावण का दर्प भंग हुआ है, यह था विधि का आकार।
प्रियवर! तुम्हारे चरणों में है मेरी हर एक साँस,
ना खेद करो, यह कर्म था — लिखा हुआ आकाश।
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